
नई दिल्ली: ईरान और इजरायल के बीच छिड़ी जंग अब वहां के नागरिकों की ज़िंदगी पर भारी पड़ने लगी है. खासकर इजरायल में रह रहे अरबी मुसलमानों पर इस युद्ध की सबसे बड़ी मार पड़ रही है.
ईरान की ओर से दागी गई मिसाइलें अब उन शहरों और इलाकों पर गिर रही हैं, जहां मुस्लिम समुदाय की बड़ी आबादी रहती है.
इसराइल में करीब 20 फीसदी अरबी मुसलमान रहते हैं, लेकिन सुरक्षा इंतजामों में उनके साथ भेदभाव के आरोप लग रहे हैं.
जिस तरह यहूदी बहुल इलाकों में शेल्टर और डिफेंस सिस्टम सक्रिय हैं, वैसे मुस्लिम इलाकों को नजरअंदाज किया गया है. इसी के चलते अब हवाई हमलों का दर्द यहां मौत बनकर टूट रहा है.
तमरा में ईरानी मिसाइल ने छीनी चार जिंदगियां
उत्तरी इजरायल का मुस्लिम बहुल शहर तमरा उस वक्त दहल गया जब एक ईरानी बैलिस्टिक मिसाइल वहां एक घर पर आकर गिरी. इस हमले में चार लोगों की मौत हो गई. जान गंवाने वालों में राजा खातिब की पत्नी, दो बेटियां और उनकी साली शामिल हैं.
हमले के बाद संकरी गलियों में रोते-बिलखते सैकड़ों लोग जमा हो गए और शोक की लहर फैल गई. राजा खातिब ने अपने दर्द को बयां करते हुए कहा, “काश मिसाइल मुझ पर भी गिरती, मैं उनके साथ होता… अब और तकलीफ नहीं होती. युद्ध बंद करो.”
मुसलमानों को नहीं मिल रही शेल्टर में पनाह
इजरायल में मुस्लिम इलाकों में एयर डिफेंस और शेल्टर लगभग नदारद हैं. आरोप है कि जब अरब नागरिक शेल्टरों में पनाह लेने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें जबरन बाहर निकाल दिया जाता है.
रिपोर्ट्स के मुताबिक, यहूदी सेट्लर्स जानबूझकर मुस्लिमों को शरण नहीं लेने दे रहे. इससे इजरायली सरकार की दक्षिणपंथी सोच और भेदभावपूर्ण रवैये पर सवाल उठ रहे हैं.
ईरानी हमलों में अब तक 24 की मौत
पिछले पांच दिनों में ईरान की ओर से हुए लगातार मिसाइल और ड्रोन हमलों में कम से कम 24 लोगों की जान गई है. हालांकि इजरायल की अत्याधुनिक एयर डिफेंस प्रणाली ने कई मिसाइलों को बीच में ही नष्ट कर दिया, लेकिन कुछ मिसाइलें सुरक्षा तंत्र को चकमा देकर रिहायशी इलाकों तक पहुंच गईं.
तेल अवीव, बनी ब्रैक, पेटाह टिकवा, हाइफ़ा और अब तमरा जैसे शहरों में मिसाइलों की बौछार देखी गई है. डर का आलम यह है कि लोग अपने घरों की बजाय बंकरों में जीने को मजबूर हैं, लेकिन मुस्लिम समुदाय को यह सुरक्षा भी नसीब नहीं.
शांति की अपील और सवालों की बौछार
जंग के बीच जब मुस्लिम नागरिकों को अपनी ही सरकार की उपेक्षा झेलनी पड़े, तो ये सवाल उठना लाजमी है – क्या सुरक्षा सिर्फ बहुसंख्यक समुदाय का अधिकार है? क्या शांति की उम्मीद अब सिर्फ राजनीतिक घोषणाओं तक सीमित रह गई है?