
न्यू दिल्ली: जनगणना भारत में लंबे समय से एक संवेदनशील मुद्दा रहा है। यह मांग सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व और कल्याणकारी योजनाओं की पारदर्शिता से जुड़ी हुई है। हालांकि इसके पक्ष और विपक्ष में तर्क हैं, यह मुद्दा फिर से चर्चा में है।
जाति जनगणना क्या है?
जनगणना का मतलब है जनसंख्या की जाति-आधारित गणना करना, जिससे यह पता चल सके कि देश में कौन सी जातियाँ कितनी संख्या में हैं। भारत में आखिरी बार संपूर्ण जाति आधारित गणना 1931 में हुई थी।
अब तक कहाँ-कहाँ हुई है जाति जनगणना?
कुछ राज्यों ने स्वतंत्र रूप से जाति जनगणना की है:
बिहार: 2022-23 में जाति आधारित सर्वेक्षण कराया गया, जिसके नतीजे 2023 में जारी हुए।
कर्नाटक: 2015 में सामाजिक-आर्थिक सर्वे किया गया, जिसे जाति सर्वे माना गया, पर रिपोर्ट पूरी तरह सार्वजनिक नहीं हुई।
महाराष्ट्र: मराठा आरक्षण के संदर्भ में जातिगत आंकड़े जुटाए गए, लेकिन कोई व्यापक जनगणना नहीं हुई।
जाति जनगणना के पक्ष में तर्क :
1. सामाजिक न्याय: इससे यह पता चलेगा कि किन जातियों को सरकारी योजनाओं का कितना लाभ मिल रहा है और कौन वंचित है।
2. सटीक नीति निर्माण: सरकार योजनाएं बेहतर ढंग से बना सकेगी क्योंकि उसे वास्तविक जातिगत डेटा मिलेगा।
3. आरक्षण नीति की समीक्षा: यह स्पष्ट होगा कि कौन-सी जातियाँ वास्तव में पिछड़ी हैं और उन्हें कितना आरक्षण मिलना चाहिए।
4. राजनीतिक प्रतिनिधित्व: जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व की मांग मजबूत होगी।
जाति जनगणना के खिलाफ तर्क :
1. सामाजिक विभाजन का खतरा: इससे जातिवाद को बढ़ावा मिल सकता है और समाज में बंटवारा गहरा सकता है।
2. राजनीतिक उपयोग: राजनीतिक दल इसे वोटबैंक की राजनीति में बदल सकते हैं।
3. तकनीकी और प्रशासनिक जटिलता: जातियों की संख्या बहुत अधिक है, जिससे आंकड़ों का वर्गीकरण कठिन होगा।
4. संविधानिक सवाल: कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह केंद्र के अधिकार क्षेत्र से बाहर है और इससे संघीय ढांचे पर असर पड़ सकता है।
जाति जनगणना से संभावित फायदे :
वंचित वर्गों की पहचान और सशक्तिकरण
योजनाओं का लक्ष्य आधारित वितरण
आरक्षण की पारदर्शिता बढ़ेगी
सामाजिक शोध और अध्ययन के लिए आधार
जाति जनगणना से संभावित नुकसान :
जातिगत तनाव और असमानता बढ़ सकती है
वोट बैंक आधारित राजनीति को बलबहुसंख्यक जातियाँ ज्यादा लाभ लेने की होड़ में लग सकती हैं
आंकड़ों की गोपनीयता और दुरुपयोग की आशंका
राजनीतिक दलों की राय
समर्थन में: कांग्रेस, राजद, जेडीयू, सपा जैसे दल जाति जनगणना के पक्ष में हैं।
विरोध में: कुछ दल और समूह मानते हैं कि यह समाज को बांटने का काम करेगा।
बीजेपी का रुख: पार्टी ने केंद्र स्तर पर स्पष्ट रुख नहीं अपनाया है, लेकिन बिहार जैसे राज्य में सहयोग किया है।
जातिगत जनगणना का इतिहास
भारत में जातिगत जनगणना की शुरुआत ब्रिटिश काल में हुई थी। पहली बार 1872 में जनगणना कराई गई, और 1881 से इसे हर दस साल में नियमित रूप से किया जाने लगा। उस दौर में जाति से जुड़ा डेटा भी इकट्ठा किया जाता था। लेकिन 1951 में आजादी के बाद सरकार ने फैसला किया कि जातिगत आंकड़े जुटाना सामाजिक एकता को नुकसान पहुँचा सकता है, इसलिए केवल अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) से संबंधित जानकारी ही ली जाती रही।हाल के वर्षों में सामाजिक और राजनीतिक माहौल में बदलाव आया है।
खासकर ओबीसी समुदाय के लिए आरक्षण और सुविधाओं की मांग तेज़ हो गई है, जिससे जातिगत जनगणना की मांग फिर से उठने लगी है। 2011 में केंद्र सरकार ने सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना (SECC) करवाई, लेकिन इसमें पाई गई गड़बड़ियों के चलते आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। इसके बाद बिहार, कर्नाटक और राजस्थान जैसे राज्यों ने खुद अपने स्तर पर जातिगत सर्वे कराए, जिससे यह मुद्दा फिर से राष्ट्रीय बहस का केंद्र बन गया है।
निष्कर्ष
जाति जनगणना एक जटिल लेकिन आवश्यक कदम हो सकता है, यदि इसे पारदर्शी, वैज्ञानिक और गैर-राजनीतिक तरीके से किया जाए। इसका उद्देश्य समाज के पिछड़े वर्गों को ऊपर उठाना होना चाहिए, न कि समाज को और अधिक बांटना।